क्रांतिकारी कवि और सामाजिक कार्यकर्ता

Shyam Bahadur Namra

श्याम बहादुर नम्र, एक दूरदर्शी कवि, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सार्वजनिक मुद्दों, शिक्षा से जुड़े प्रयोगों और जैविक खेती के लिए समर्पित कर दिया। आइए, उनके लेखन और सामाजिक योगदान के साझीदार बनें। वे अपने कार्यों और विरासत के माध्यम से, आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे।

समर्पित हैं मेरी कविताएँ
समर्पित हैं मेरी कविताएँ उन करोड़ों अनपढ़ों को,
जो इन्हें पढ़ नहीं पायेंगे, लेकिन गढ़ पायेंगे एक नया समाज,
जहाँ वे खुद या आने वाली पीढ़ियाँ, इन्हें पढ़ सकें ।
समर्पित हैं मेरी कविताएँ, उन थोड़े-से पढ़े-लिखे पागलों को
जो व्यवस्था की धार में बिना बहे उसे उस ओर मोड़ने में लगे हैं,
जहाँ वे अनपढ़ों के साथ एक नया समाज गढ़ सकें।
- श्याम बहादुर नम्र.

श्याम
बहादुर
नम्र

ऐसी कुर्सी का अभिनंदन

जिसके लिए गाँव से दिल्ली तक है इतनी आपा-धापी,
नैतिकता का चोंगा पहने, घूम रहे हैं कितने पापी ।
जिसको देखो वोही अपनी इस कुर्सी पर आंख गड़ाये,
डूबे देश कि जनता डूबे, कुर्सी नहीं डूबने पाये ।
कोई टोपी, कोई पगड़ी, टाई कोई, लगाये चंदन,
जिस पर बैठ, सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

चमचागीरी, झूठे वादे, तोड़-फोड़, हड़ताल - प्रदर्शन,
जिसमें भी ये सद्गुण होंगे, पायेगा कुर्सी का दर्शन ।
जहाँ बैठ सुविचार डूबते, पड़ता है विवेक पर पाला,
आता है चरित्र घर मातम, संयम के घर सदा दिवाला ।
जहाँ साँड़ साधू कहलाते, गदहे चर जाते नन्दन-वन,
जिस पर बैठ सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

जाति धर्म का जाल बिछाकर, राजनीति में आज जी रहे,
न्याय बना है दूध, और नेताजी बने बिलार पी रहे ।
जिसका है कुर्सी पर कब्जा, चाहे जो कर ले मनमानी,
गयी हाथ से जिसके कुर्सी, उसको याद आ गयी नानी ।
जाओ जै-जैकार तुम्हारी, जनता के कल्याण निकन्दन ।
जिस पर बैठ सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

चुहिया पर्वत जहाँ निगलती, नैया जहाँ निगलती सागर,
उल्टी बात कबीर दास की, आज हो रही जहाँ उजागर ।
जिस पर बैठ दृष्टि फिर जाती, और चोर भी साह दीखता,
सूखे खेत हरे दिखते हैं, खाली कुआँ अथाह दीखता ।
जिससे घर-घर स्वर्ग दीखते, गाँव-गाँव लगता है लन्दन,
जिस पर बैठ सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

कल थी जिसकी बजी बधाई, आज वही है मुँह लटकाये,
कब्र तोड़ कर जो निकला था, फिर से अपनी कब्र बनाये ।
कोई समझे उसे विदाई, कोई समझे उसे समर्थन,
नेता का वक्तव्य छपा तो, घमासान चलता है मंथन ।
ऊपर से ललकारे लेकिन, भीतर प्राण कर रहा क्रन्दन,
जिस पर बैठ सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

चोर-लुटेरे, तस्कर-डाकू, जेबकटों का दुख हरती है,
सौ-सौ चूहे खाने वाली, बिल्ली इस पर हज करती है ।
बुधुआ को बुधिराम बनाती, कलुआ का भी रेट बढ़ाती
कई करोड़ समाये जिसमें, मंत्रीजी का पेट बढ़ाती ।
जनता जब आरोप लगाती, कुर्सी खुद कर देती खण्डन,
जिस पर बैठ सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

राजनीति में देखो भैया, कितने खेल कराती कुर्सी,
मत-विहीन, बेमेल मतों का, भी है मेल कराती कुर्सी ।
देवी है, जाने कितनों से है जप-ताप कराती कुर्सी,
और भूतनी डाइन भी है, कितने पाप कराती कुर्सी ।
जिसके खण्डन में है मण्डन, जिसके मण्डन में है खण्डन,
जिस पर बैठ सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

जिसे नहीं मिल पायी, उससे है तारे गिनवाती कुर्सी,
जिसे मिल गयी, उसके घर में घी के दिये जलाती कुर्सी ।
जिसने इसको पाकर खोया, खस्ता हाल कराती कुर्सी,
इसका जो विरोध करता है, उसकी खाल खिंचाती कुर्सी ।
जिसने चूक किया थोड़ी भी, उसको मिला महापरिदण्डन,
जिस पर बैठ सभी कुछ सम्भव, ऐसी कुर्सी का अभिनन्दन ।

होमवर्क
एक बच्ची स्कूल नहीं जाती, बकरी चराती है
वह लकड़ियां बटोरकर घर लाती है
फिर मां के साथ भात पकाती है
एक बच्ची किताब का बोझ लादे स्कूल जाती है
शाम को थकी मांदी घर आती है
वह स्कूल से मिला होमवर्क मां-बाप से करवाती है
बोझ किताब का हो या लकड़ी का, बच्चियां ढोती हैं
लेकिन लकड़ी से चूल्हा जलेगा, तब पेट भरेगा
लकडी लाने वाली बच्ची यह जानती है
वह लकडी की उपयोगिता पहचानती है
किताब की बातें कब किस काम आती हैं
स्कूल जाने वाली बच्ची, बिना समझे रट जाती है
लकड़ी बटोरना, बकरी चराना और मां के साथ भात पकाना
जो सचमुच घरेलू काम हैं, होमवर्क नहीं कहे जाते,
लेकिन स्कूलों से मिले पाठों के अभ्यास
भले ही घरेलू काम न हों, होमवर्क कहलाते हैं
कब होगा, जब किताबें सचमुच होमवर्क से जुड़ेंगी
और लकड़ी बटोरने वाली बच्चियां भी ऐसी किताबें पढ़ेंगी

तुम तरुण हो या नहीं

तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,

जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।

तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,

सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?

इससे ही फैसला होगा –कि तुम तरुण हो या नहीं –

जनता के साथ हो या और कहीं ।

तरुणाई का रिश्ता उम्र से नहीं, हिम्मत से है,

आजादी के लिए बहाये गये खून की कीमत से है ,

जो न्याय-युद्ध में अधिक से अधिक बलिदान करेंगे,

आखिरी साँस तक संघर्ष में ठहरेंगे ,

वे सौ साल के बू्ढ़े हों या दस साल के बच्चे –

सब जवान हैं ।

और सौ से दस के बीच के वे तमाम लोग ,

जो अपने लक्ष्य से अनजान हैं ,

जिनका मांस नोच – नोच कर

खा रहे सत्ता के शोषक गिद्ध ,

फिर भी चुप सहते हैं, वो हैं वृद्ध ।

ऐसे वृद्धों का चूसा हुआ खून

सत्ता की ताकत बढ़ाता है ,

और सड़कों पर बहा युवा-लहू

रंग लाता है , हमें मुक्ति का रास्ता दिखाता है ।

इसलिए फैसला कर लो

कि तुम्हारा खून सत्ता के शोषकों के पीने के लिए है,

या आजादी की खुली हवा में,

नई पीढ़ी के जीने के लिए है ।

तुम्हारा यह फैसला बतायेगा

कि तुम वृद्ध हो या जवान हो,

चुल्लू भर पानी में डूब मरने लायक निकम्मे हो

या बर्बर अत्याचारों की जड़

उखाड़ देने वाले तूफान हो ।

इसलिए फैसले में देर मत करो,

चाहो तो तरुणाई का अमृत पी कर जीयो ,

या वृद्ध बन कर मरो ।

तुम तरुण हो या नहीं यह संघर्ष बतायेगा ,

जनता के साथ हो या और कहीं यह संघर्ष बतायेगा ।

तुम संघर्ष में कितनी देर टिकते हो ,

सत्ता के हाथ कबतक नहीं बिकते हो ?

इससे ही फैसला होगा –

कि तुम तरुण हो या नहीं –

जनता के साथ हो या और कहीं ।

कलम तभी तक कलम है जब तक सच लिखे

कलम कलम है, लेकिन तभी तक कलम है
जब तक सच लिखे, उसके लिखे में झूठ न दिखे
कलम विकाऊ नहीं होती, बिकी हुई कलम बिलकुल टिकाऊ नहीं होती।
क्योंकि बिकते ही वो वस्तु हो जाती है।
उसकी सारी अस्मिता खो जाती है।

कलम फूल है, सिद्धांत की टहनियों पर काँटों में भी हंसती मुस्कुराती है।
लेकिन तोड़ लिए जाने पर भगवान के माथे पर भी मुरझा जाती है।
कलम तभी तक कलम है, जब तक सिद्धांत की साख पर रहे
कलम तभी तक कलम है, जब तक वो सच लिखे, सच कहे

कलम अंकुर की तरह कोमल है, नितांत कोमल
लेकिन पत्थर का भी सीना चीरकर उग आती है।
झूठ के घने अँधेरे में सच के दिए सी टिमटिमाती है
कलम रोशनी है दिए की बिकते ही बुझ जाती है।

कलम कभी किसी को नहीं छलती
कलम कभी लीक पर नहीं चलती
ईर्ष्या से नहीं जलती, इसलिए हारकर भी हाथ नहीं मलती
कलम न डरती है न डराती है, किसी पर धौंस नहीं जमाती है

वो ब्लैकमेल नहीं करती, सच की खातिर टूट जाए फिर भी नहीं मरती
लेकिन वो बिकाऊ हाथों में अपार कष्ट सहती है
मुक्ति के लिए छटपटाती है, उन हाथों से अपने हर लिखे पर शर्माती है
क्योंकि वो वस्तु नहीं बनना चाहती, किसी भी दाम पर नहीं बिकना चाहती

क्योंकि कलम कलम है लेकिन तभी तक कलम है जब तक सच लिखे
उसके लिखे में झूठ न दिखे

समग्र क्रांति के लिए, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

समग्र क्रांति के लिए, बढ़े चलो, बढ़े चलो।
चलो कि ऊँच-नीच, जाति-भेद का विनाश हो,
सभी को मिल सके खुशी, न कोई मन उदास हो ।
समत्व-शांति के लिए, बढ़े चलो, बढ़े चलो,
समग्र क्रांति के लिए बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

विकास हो, मगर किसी का हक कभी छिने नहीं,
बँटे प्रकाश हर जगह, न अंधकार हो कहीं ।
चलो कि लूट के खिलाफ, युद्ध तुम लड़े चलो,
समग्र क्रांति के लिए, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

थके, गिरे जो आज हैं, वो क्रांतिवीर बन सकें,
दमन की ताकतों के सामने, निडर जो तन सकें,
उन्हीं के वास्ते, नया समाज तुम गढ़े चलो ।
समग्र क्रांति के लिए, बढ़े चलो, बढ़े चलो।

हरे-भरे वनों का जिस तरह विनाश हो रहा,
अकाल - बाढ़ से उजाड़, हो रही वसुंधरा ।
गगन में चिमनियाँ मिलों की हैं धुआं उगल रहीं,
नदी को गंदी नालियां, जहर में हैं बदल रहीं ।
गलत विकास की दिशा के सामने अड़े चलो ।
समग्र क्रांति के लिए, बढ़े चलो, बढ़े चलो।

राष्ट्र नहीं होती भुक्खड़ जनता

नष्ट हो जायें जंगल, आम में न आये बौर,
बाग में न चहकें चिड़ियाँ, कोयल को न मिले कूकने का ठौर।
मर जायें कामधेनु या नन्दी विषैला पानी पीकर.
खत्म हो जायें मछलियाँ, क्या करेंगी जीकर !

कुछ किसान या मछुआरे ही तो होंगे बेरोजगार,
जहरीले धुएँ से, कुछ लाख लोग ही तो होंगे बीमार,
या छोड़ देंगे दुनियाँ, कुछ हजार, क्या फर्क पड़ता है !
राष्ट्र हित सर्वोपरि है, उसके लिए इतना तो चलता है।

इसलिए पर्यावरण की बात मत उठाओ,
विकास की दौड़ से राष्ट्र को पीछे मत लौटाओ।

राष्ट्र नहीं होता पर्यावरण, राष्ट्र नहीं होता जंगल,
राष्ट्र नहीं होती मछली, राष्ट्र नहीं होती कोयल।
राष्ट्र नहीं होती नदी, राष्ट्र नहीं होती हवा,
राष्ट्र नहीं होते पशु, राष्ट्र नहीं होती फसल।
और जनता ?
वह तो, राष्ट्र पर कुर्बान होने के लिए होती है।
इसलिए- मर जायें कुछ हजार या लाख जहरीले धुएँ या पानी से,
तो उन्हें शहीद का दर्जा दिया जाता है,
और उनके शव के साथ उनके मरने का समाचार भी
दफना या जला दिया जाता है।

तुम पूछते हो कि राष्ट्र कहते किसे हैं ?
ऐसे सवाल राष्ट्र-द्रोही पूछते हैं।
तुम्हें मालूम होना चाहिए कि- बंदूकें गुलाम हैं जिनकी,
सत्ता पर लगाम है जिनकी,
जिनका नियन्त्रण है पूँजी पर,
जो बड़े-बड़े उद्योग चलाते हैं।
साफ हवा में जहर मिलाते हैं।
फैक्टरी के कचरे से, नदियाँ सड़ाते हैं,
छीन लिया है, जिन्होंने सूरज को,
और छिपा दिया है धुएँ के पहाड़ के पीछे,
सुबह होने की खबर मिल सके,
इसलिए मिल का भोंपू बजाते हैं।

अंधाधुन्ध ऊर्जा के दोहन से,
राष्ट्र यानी खुद के लिए हर साल अरबों मुनाफा कमाते हैं।
अरे, राष्ट्र वो हैं, जिनके हाथ में है संपन्नता.
राष्ट्र नहीं होती भुक्खड़ जनता।

और जनता अब कमजोर हो गयी है,
बीमार पड़ने लगी है, गैस के धुएँ से मरने लगी है।
वह मुआवजा भी मांगती है, जरूरत से ज्यादा सीना तानती है।
इसलिए वे राष्ट्र के विकास के लिए मशीन चाहते हैं-
जनता से आदमी नहीं, मशीन होने का यकीन चाहते हैं।

क्योंकि, मशीनें बीमार नहीं पड़तीं, मशीनें गैस के धुएँ से नहीं मरतीं,
मशीनें हड़ताल नहीं करतीं, मशीनें सवाल नहीं करतीं,
मशीनें मुआवजा नहीं माँगतीं, मशीने मुक्ति का मार्ग नहीं खोजतीं
मशीनें सीना नहीं तानतीं । मशीनें आदमी की तरह नहीं सोचतीं ।
आदमी कुछ ज्यादा सोचने लगा है,
इसलिए राष्ट्र को खतरा होने लगा है।
इसलिए देश में सिर्फ वो रहेंगे और मशीनें रहेंगी,
जनता जब तक आदमी से मशीन न बन जाय, संगीनें रहेंगी।

आदमी तो उन्होंने बहुत पहले खत्म कर दिया होता,
अगर उन्हें बाजार का ख्याल न रहा होता।
क्योंकि, मशीनें सिर्फ ऊर्जा खाती हैं,
वो बाजार में माल खरीदने कहाँ जाती हैं ?
उनके माल के लिए बाजार जरूरी है।
और आदमी का जिन्दा रहना उनकी मजबूरी है।

इसलिए वे आदमी को मरने नहीं देंगे, उसे मशीन बनायेंगे,
कम्प्यूटर के ताल पर उसको नचायेंगे ।
मुहल्ले-मुहल्ले, गाँव-गाँव टी० वी० पहुँचायेंगे।

जैसा वे चाहते हैं, वैसी बात
रोज-रोज ठोंक ठोंक सबके दिमाग में घुसायेंगे।
वो ऐसा दिखायेंगे विज्ञान का कमाल,
कि लोग भूल जायेंगे भूख का सवाल
उनके लिए जरूरी है कि आदमी एक सी हरकत करे
पर एक न रहे, वे जिधर चाहें, वह उधर बहे।
राष्ट्रीय एकता के नाम पर आपस में दंगा करे,
देश की इज्जत के लिए एक-दूसरे को नंगा करे ।

वे जनता को सम्प्रदाय व जाति में बाँटें,
और लोग उनकी सांप्रदायिक सद्भावना के तलुव चाटें।
लेकिन हम उनका सपना पूरा नहीं होने देंगे,
जनता के भीतर के आदमी को नहीं सोने देंगे।
फिर मछुआरे हों या किसान, मजदूर हों या दस्तकार,
हम सब करेंगे, उस नयी सुबह का इन्तजार।

इन्तजार क्यों ? हम उसे जल्द लायेंगे,
जिसमें एकजुट होकर समता के गीत गायेंगे।
और तब, वो अपने ही दुश्चक्र में फँस के मरेंगे,
विषमता के दल-दल में घेंस के मरेंगे।
क्योंकि मशीनें उनके मुनाफे के लिए नहीं,
सबकी खुशहाली के लिए काम करेंगी,
थकने पर वे भी आराम करेंगी।
फिर आदमी भी काम से नहीं थकेगा,
मशीनों के साथ आराम से चलेगा।

और फिर से हरियाली के गीतों से गंजेगा जंगल,
खेत-खेत लहरायेगी अन्नपूर्णा फसल,
नहीं मरेंगी मछलियाँ, लहरों से खेलेंगी,
फिर कूकेगी कोयल, फिर चिड़ियाँ चहकेंगी।
लोग दुनियाँ नहीं छोड़ेंगे गैस के असर से,
कामधेनु होगी घर-घर, नन्दी भी मरेगा नहीं पानी के जहर से।

भर जायेंगे कुदरत के सारे घाव,
नदियों में मवाद नहीं, अमृत बहेगा,
टूट कर बिखर जायेंगे धुएँ के पहाड़
खुली साँस हम भी लेंगे, सूरज भी लेगा,
हवा का हर झोंका ताजगी को स्वर देगा।

न रहेगा प्रदूषण, न शोषण, न दमन,
चारों ओर होगा बस चैन और अमन ।
और टूट जायेंगी भौगोलिक सीमाएँ,
खुल जायेंगी सभी दिशायें;
तब राष्ट्र, घुटन की कैद नहीं,
पूरा संसार होगा,
विश्व-बंधुत्व का सपना साकार होगा।
विश्व-बंधुत्व का सपना साकार होगा।

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